जय जय भैरवि असुर भयाउनि
पशुपति भामिनि माया ।
सहज सुमति बर दिय हे गोसाउनि
अनुगति गति तुअ पाया ।।
जय जय भैरवि असुर भयाउनि…
बासर रैनि सवासन शोभित
बासर रैनि सवासन शोभित
चरण चन्द्रमणि चूडा ।
कतओक दैत्य मारि मुँह मेललि
कतओ उगिलि करु कूडा ।।
जय जय भैरवि असुर भयाउनि…
सामर वरण नयन अनुरंजित
AA..AA..AA..
सामर वरण नयन अनुरंजित
जलद जोग फुलकोका ।
कट–कट विकट ओठ पुट पाँडरि
लिधुर फेल उठ फोका ।।
जय जय भैरवि असुर भयाउनि…
घन–घन–घनन घुघुरु कत बाजए
घन–घन–घनन घुघुरु कत बाजए
हन–हन कर तुअ काता ।
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक
पुत्र विसरु जनु माता ।।
जय जय भैरवि असुर भयाउनि
पशुपति भामिनि माया ।
सहज सुमति बर दिय हे गोसाउनि
अनुगति गति तुअ पाया ।।
जय जय भैरवि असुर भयाउनि…..
स्रोत : पुस्तक : विद्यापति के गीत (पृष्ठ 9) रचनाकार : विद्यापति प्रकाशन : वाणी प्रकाशन संस्करण : 2011
जय जय भैरवि असुर भयाउनि अर्थ
राक्षसों को आतंकित करने वाली भैरवी शिवानी तुम्हारी जय हो! तुम्हारे चरण-युगल ही इस दास के लिए एकमात्र सहारा हैं… देवि, मैं तुमसे ‘सहज-सुबुद्धि’ की ही वरदान के रूप में याचना कर रहा हूँ। दिन-रात तुम्हारे चरण शव-आसन पर शोभित हैं… तुम्हारा सीमंत चंद्रमणि से अलंकृत है… कितने ही दानवों को मारकर तुमने अपने मुँह के अंदर डाल लिया, कितने ही दानवों को तुम हज़म कर गई हो… उगल दिए जाने पर कितने ही दानव सीठी (निःसत्त्व) बनकर धूल में मिल गए हैं। तुम्हारी सूरत साँवली है। आँखें लाल-लाल हैं। लगता है, बादलों में लाल-लाल कमल खिले हैं। पंखुड़ियों जैसे होंठ हैं तुम्हारे, जिनसे कट-कट की विकट आवाज़ निकल रही है। ख़ूनी रंग के झाग बुलबुले पैदा कर रहे हैं। मेखला (करधनी) के घुँघरुओं से झन-झन-झनन घन-घन-घनन की मीठी आवाज़ निकल रही है। तुम्हारी कृपाण प्रहार करने के लिए हमेशा तैयार रहती है… । तुम्हारे चरणों का सेवक विद्यापति कवि कहता है—“माता, पुत्र को कभी नहीं भूलो!”
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